कैसे करे ॐ शब्द का प्रयोग साधना उच्चारण
कैसे करे ॐ शब्द का प्रयोग ।
ध्यान में जब ॐ की ध्वनि निकलती है तो उसे बोलने का एक तरीका है आप सा बोलोगे तो वो भी कई तरीके से अलग अलग ध्वनि में निकलेगा शुद्ध - सा - फिर कोमल - सा - शुद्ध में आवाज़ सीधी जाती है कोमल में लहराती हुई हारमोनियम में सफेद बटन शुद्ध आवाज़ देते है और काले लहराती हुई ।
शिव देवी को बताते है ॐ की महिमा
पिण्डमन्त्रस्य सर्वस्य स्थूलवर्णक्रमेणतु ।
अर्धेन्दुबिन्दुनादान¬्त शून्योच्चाराद् भवेच्छिवः।।
नाभि से लेकर द्वादशान्त पर्यन्त इस मनुष्य शरीर रूपी पिण्ड में ध्वन्यात्मक रूप से विभक्त होकर विद्यमान होने के कारणॐकार महामंत्र को पिण्ड मन्त्र भी कहते हैं।प्रणव, नवात्म प्रभृति पिण्ड मन्त्र कहलाते हैं।इनको पिण्ड मन्त्र इसलिए भी कहा जाता है कि इनमें पृथक् पृथक् अनेक वर्णों की स्थिति रहती है और अन्त मे प्रायः सभी वर्णों का संयोजन करने वाला एक संयोजक स्वर रहता है।इस प्रकार के सभी पिण्ड मन्त्रों के स्थूल वर्णों का क्रम से उच्चारण कर लेने के बाद बिन्दु, अर्धेन्दु, नादान्त प्रभृति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर मात्रा में बदलते जा रहे सूक्ष्म वर्णों के उच्चारण का शून्य अवस्था पर्यन्त अनुसंधान किया जाता है।'सोहं' यह भी प्रणव का ही स्वरूप है।इसमे से सकार और हकार रूप हल् का लोप हो जाने पर 'ॐ' अपने परम शुद्ध स्वरूप मे शेष रह जाता है।इस प्रणव का 'सोहं' यह स्वरूप अजपा से गर्भित होकर अर्थात् दिन रात बिना रूके निरंतर चलती रहने वाली श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया से मिलकर ह्रदय मे बहुत ही स्पष्ट रूप से ध्वनित होता रहता है।अथवा समस्त वाङ् मय को अपने पेट मे समाहित कर यह ॐकार प्रत्येक प्राणी के ह्रदय मे अनाहत नाद के रूप मे निरंतर ध्वनित होता रहता है।ह्रदय मे विद्यमान यह प्रणव रूप सदक्षर ही परमपदस्थानीय है।तथा यही तेज स्वरूप मे हमारे शरीर के रोम रोम में कण कण में विराजित होकर हमें उर्जावान व तेजस्वी रखता है।हम इसी तेज की उपासना करते हैं।यह प्रणव अपनी अकार से लेकर उन्मना पर्यंत बारह मात्राओं को नाभि से लेकर शिखान्त पर्यन्त स्थानों में बांट देता है।वर्णों के उच्चारण का क्रम स्थूल दशा में होता है।स्थूल वर्णों के उच्चारण काल को ही 'मात्रा'कहा जाता है।नाभि ह्रदय तथा मुख मे क्रमशः प्रथम तीन मात्राओं का उच्चारण किया जाता है, तथा स्पष्ट होने के कारण ही इन्हें स्थूल भी कहते हैं।
ॐ उच्चारण क्रमशः इस प्रकार किया जाता है।
(1)- ॐकार की प्रथम मात्रा अकार के अनुसार सर्वप्रथम 'अ' अक्षर का उच्चारण करते हुए धीरे-धीरे 'उ' का उच्चारण करें व 'उ' का उच्चारण करते हुए 'म' का उच्चारण प्रारंभ करें तथा 'म' का उच्चारण करते हुए मुख को बन्द करके प्रश्वास की क्षमता अनुसार निरंतर उच्चारण करते रहें तथा इसके सिद्ध होने तक इस क्रिया को दोहराते रहें।इस क्रिया के परिणाम स्वरूप उत्पन्न ॐकार ध्वनि साधक के मस्तिष्क मे पहुंचकर विचार वायु से उत्पन्न मस्तिष्क की गरमी को नष्ट करके मस्तिष्क की कोशिकाओं को शीतलता प्रदान करती है जिससे साधक निरर्थक विचारों से मुक्त होकर शांति का अनुभव करताहै।(2 )- ॐकार की द्वितीय मात्रा उकार के प्रथम अक्षर 'उ' का उच्चारण करते हुए 'म' का उच्चारणप्रारंभ करें फिर 'म' का उच्चारण करते हुए मुख को बन्द करलें तथा इस स्थिति में शान्त भाव से लयात्मक रूप से प्रश्वास की क्षमता अनुसार निरंतर उच्चारण करते रहें, तथा द्वितीय मात्रा के सिद्ध होने तक यह क्रियादोहराते रहें।इस क्रिया के परिणाम स्वरूप उत्पन्न ध्वनि साधक के ह्रदय चक्र मे पहुंचकर ह्रदय संबंधी विकारों को दूर करती है व साधक की भावनात्मक जटिलताओं को दूर कर ह्रदय को प्राकृतिक संवेदनाओं से युक्त करती है।(3 )- ॐकार की तृतीय मात्रा 'म' का उच्चारण करते हुए मुख को बन्द करलें तथा शान्त भाव से लयात्मक स्वर में प्रश्वास की क्षमता अनुसार निरंतर उच्चारण करते रहें व तृतीय मात्रा के सिद्ध होने तक इस क्रिया को निरंतर दोहराते रहें।इस क्रिया के परिणाम स्वरूप उत्पन्न ध्वनि साधक के नाभि चक्र पर्यंत पहुंचती है तथा साधक के प्राण केन्द्र को संवेदनशील करती है।ॐकार ( प्रणव ) की तीनों मात्राओं की सिद्धि के पश्चात ही ॐकार महामंत्र को शुद्ध रूप से उच्चारित करना संभव हो पाता है।अब ॐकार ( प्रणव ) का उसके शुद्ध रूप व ह्रस्व स्वर में शून्य अवस्था पर्यन्त अनुसंधान करना चाहिए।बिन्दु से समना पर्यंत अर्द्धमात्रा और उसके उपर परम शिव स्थान होता है।यहां स्थूल अक्षरों के क्रम से संयुक्त पिण्ड मन्त्र में बिन्दु, अर्द्धचन्द्र, नादान्त और शून्य के उच्चारण से परमशिव भावकी प्राप्ति संभव होती है।अन्त में समना और उन्मना के उच्चार से अर्थात द्वादश मात्रा के उच्चारण काल की भावना इस विधि का प्रमुख व अनिवार्य तत्त्वहोती है।प्रणव को समस्त पिण्ड मे समाहित जानकर जो साधक इसके समस्त वर्णों का क्रम से लयात्मकउच्चारण करता हुआ शून्य अवस्था उन्मना मे पहुंचकर प्लुत वर्ण के उच्चारण की अन्तिम परिणिति की भावना करता है वह साधक स्वयं शिव स्वरूप हो जाता है।
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