संसार की कोई भी साधना सिद्धि बिना गुरु के मार्गदर्शन के द्वारा संभव नहीं है।
संसार की कोई भी साधना सिद्धि बिना गुरु के मार्गदर्शन के द्वारा संभव नहीं है।
गुरु ही हर प्रकार के भय, भ्रम और भटकाव को दूर कर सकने में समर्थ होता है। यह आवश्यक नहीं है कि शास्त्रों में गुरु की जो विशेषताएं बताई गई हैं, वे सभी शाबर गुरु में हों। शाबर मंत्रों का सिद्ध गुरु ब्राह्मण, संन्यासी कर्मकांडों (पूजा-अनुष्ठान आदि) में निष्णात हो, यह भी आवश्यक नहीं है। शाबर सिद्ध गुरु निरक्षर भी हो सकता है; किंतु फिर भी उसमें गुरुत्व भार वहन करने की दक्षता - क्षमता अवश्य होनी चाहिए।
साधना सिद्धि के लिए साधक को गुरु के बाद सबसे अधिक आवश्यकता श्रद्धा और समर्पण भाव की होती है। बिना श्रद्धा के समर्पण का भाव उत्पन्न नहीं होता। श्रद्धा के द्वारा ही गुरु शिष्य और मंत्र देवता के मध्य तादात्म्य स्थापित होता है।
शाबर मंत्र सिद्धि में पवित्रता का ध्यान रखना भी आवश्यक है। पवित्रता के संदर्भ में तन की पवित्रता और मन की पवित्रता के साथ ही स्थान और वातावरण की पवित्रता का ध्यान रखना भी आवश्यक है। तन की पवित्रता के लिए स्नान और आचमन आदि किए जाते हैं।
मंत्र सिद्धि हेतु जाप के समय यदि साधक का शरीर अपवित्र होगा तो सिद्धि प्राप्त होने के स्थान पर हानि की प्रबल संभावना हो जाती है।
शाबर मंत्रों की सिद्धि के लिए किसी विशेष प्रकार के आसन का कोई निर्देश नहीं दिया गया है। शाबर साधना सुखासन में बैठकर भी सम्पन्न की जा सकती है। वैसे वीरासन प्रायः अधिक उपयुक्त रहता है। इस आसन में परी, बेताल और हनुमान आदि की मंत्र सिद्धि यथोचित ढंग से की जाती है।
शाबर मंत्रों की सिद्धि में जप का विशेष महत्त्व है। जप तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें वाचिक, उपांसु और मानसिक जप के नाम से पुकारा जाता है। वाचिक जप में जपकर्त्ता के मुख से मंत्र का उच्चारण स्पष्ट रूप से इतनी ऊंची आवाज में किया जाता है जिसे स्पष्ट सुना जा सके। उपांसु जप में जपकर्त्ता के होंठ स्पष्ट हिलते हैं और मुख के अंदर जिह्वा क्रियाशील रहती है। मुख से फुसफुसाहट की ध्वनि निकलती है। मानसिक जप के दौरान जपकर्त्ता के मुख से किसी भी प्रकार की ध्वनि बाहर नहीं निकलती।
शाबर मंत्रों के जप में प्रायः 'उपांसु जप' का प्रयोग होता है। इन मंत्रों की साधना करते समय नियम और मुहूर्त्त आदि का विशेष महत्त्व नहीं है; किंतु शाबर मंत्र सिद्धि का सबसे उचित समय शारदीय और बासंती नवरात्र हैं। नवरात्रों के अलावा होली, दीपावली, दशहरा और चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण भी शाबर मंत्रों की सिद्धि के लिए उपयुक्त रहते हैं।
यद्यपि शाबर मंत्रों के जाप और सिद्धि हेतु किसी दिशा विशेष का कोई प्रावधान नहीं है, तथापि दिशा ध्यान रखा जाए तो वह अधिक उपयुक्त कहा गया है। यह दिशा ध्यान तंत्र शास्त्र के अनुरूप ही किया जाए तो अधिक उपयुक्त रहता है। तंत्रशास्त्र में विभिन्न सिद्धियां प्राप्त करने के लिए दिशा का प्रावधान निम्न प्रकार से किया गया है
वशीकरण - पूर्व दिशा
अभिचार कर्म - दक्षिण
धन प्राप्ति प्रयोग - पश्चिम दिशा
शांति, पुष्टि, आयुष्यप्रद एवं रक्षा आदि प्रयोग - उत्तर दिशा
विशेष रूप से शाबर मंत्र साधना काशी नगरी की ओर मुख करके की जाती है।
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